आपणां बडेरा - A Rajathani Poem for Our Rajasthani Ancestors
हुक्को, चिलम और हताई,
आ ही आपणां बडेरा री कमाई।
उठता ही चीलम ढूंढता,
फेर लोटो भरता हा
ले ओटो आक गो निमटण भाग- पाटी निकळ ज्यावंता हा।
डांगरा स्यू हेत घणो हो
बाँटो हाथां स्यूं रळाता हा
छोटा-छोटा बछड़िया नै बाखळ म खिलाता हा।
भेंस्यां, पड़्या नें नुहाण ले ज्यांवता,
सागै आप भी नहा आंवता,
साबण गी जरूरत कोनी
खळखोटो ठन्डे पाणी स्यूं खा आंवता हा।
बनोरा न उडीकता रेंता
थाळी भर- मर जीमता हा
गुंदिया गी बंट काड गे
पाछै घरां पूगता हा।
बस करण गी आदत कोनी
देशी धी रो चूरमो धाप्योड़ा गिट ज्यावंता हा।
च्यार-पांच गी गिनती कोनी,
रोट बाजर गा लेता हा।
पी राबड़ी दिनगै पहली, खेता कानी हो लेता हा।
ठंडी बासी कदी न जाणी
सुंकड रोट्यां गो मचा ज्यांवता हा
मिरकली स्यूं धापता कोनी
देशी धी गी देकची बिना डकार पचा ज्यांवता हा।
राबड़ी री बात न्यारी
आधी मुंछ मैं उळझी रेंती हर आघी न जरका ज्यांवता हा
फोफलिया रो साग खार,
काल स्यूं भिड़ ज्यांवता हा।
परणीजन जदै जावंता
उंट बळद रा गाडा म
हनीमून मनाय ले आवंता,
भैंस गोबर रा बाड़ा मैं।
गणित बै कदी पडी कोनी
पण हिसाब किताब में चुक्या कोनी,
जै आ ग्या आप पर
बडा-बडा नै बक्श्या कोनी।
पीसा गो मोह कोनी,
कमाता बितो खाता हा
घरां आयेड़ माणस न,
चा जरूर पयान्ता हा।
दाणे-दाणे गो हिसाब राखता,
रामरूमी सगळा स्यूं करता हा
हर घरां आयड़ी छोरयां नै,
'बेस' करागे भेजता हा।
सूत कातता दिन में
आथण चिलम चासता हा,
माय बीच में हुक्को पाणी
चसड़-चसड़ खींच ज्यावंता हा।
भातो बांध दोफारां रो
बकल्ड्यां नै चराय आंवता हा
आंधी, में कदी चुक्या कोनी,
आथण रेवड़ धरां ले आंवता हा।
बाड़ा भरयोड़ा टाबर हुंता,
'काको' बै कहलाता हा।
हर रीति-रिवाज गी खातर
काड जूती पगां स्यू माणस गी माटी कर आंवता हा।
छोड़ता कोनी 'चा' जूंठोड़ा गिलसा म,
लुगाया रेती मांजती 'चा' रा कोपड़ा रेतां म।
गमछा रेंता खुवां पै
आटी मूँछ गी लगाता हा,
देख सांगरी लागेड़ी
जाँटी पर चढ़ ज्याता हा।
भलै, बुरै गो सगळो बेरो
पढ़ा-लिख्या आगै पानी भरता हा
र के बात करै रै मोट्यार,
चाल देख गे आपगी लुगाई पिछाण लेता हा।
एक खंखारे स्यूं आंकस रेंतो,
'ओलो' आज्यांतो मुंडा पे
एक दाकल गे मायने,
टट्टी-मूतिया आज्यांता पजामा म।
लुगायां रहंति घरां म,
हर चुगली करती धोरां म
भाग-पाटी निकल ज्यावती
पिंपळ सिंचण खोड़ा म।
लुगायां री बात ही न्यारी
बोरियो सिर पै, हाथां मैं भुहारी
आधी रहन्ती घरां हर आधी रहन्ती बटोड़ा मैं।
सूरज दिनगै देखती कोनी
गारो लीपती भींता म।
पाणी रा घड़ा ल्यावती
मण-मण चक सवेरे में
'कलेवा' गो शौक तकड़ो
भर बाटको बैठ ज्यावती आथन-दिनगै पेड़यां म।
ठाठ सूं रेंता घरां म
बडेरा बै कहलांता हा
आपणे स्यूं कि मांग्यो कोनी,
सो क्यूं आपां नै देंता ही हा
रे माणस तू भूले क्यूं
बे तो आपणा बडेरा हा
ढलते दिन गा बे उगता सवेरा हा।
लेखक - आनंद जांगिड़
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